दक्षिणापथ। “करमछहा”नाटक का मंचन 1977 में हुआ। रायपुर के रंगमन्दिर में मंचन के बाद कई गांवों में भी मंचन हुआ।इसी नाटक को , छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद एम, ए, हिंदी साहित्य के एक छत्तीसगढ़ी भाषा साहित्य के प्रश्नपत्र में शामिल किया मैंने ।बड़ा गुरुतर दायित्व था मुझ पर!
फिर क्या हुआ डॉ, बघेल के 4थे नाटक का जिसे वे मुझे देना चाहते थे?
आपातकाल खत्म होने के बाद। -केंद्र में बृजलाल वर्मा जी व पुरुषोत्तमलाल कौशिक जी मंत्री बन गए। बाद में यह सरकार भी खत्म हो गयी।
फिर कुछ वर्ष बीत गए।अचानक मेरी खोज खबर लेने बृजलाल वर्मा जी सपत्नीक घर आये।मेरे प्रति उन दोनों का स्नेह बहुत था।चाय नाश्ता करने के बाद जाते-जाते अपने कुर्ते के बाजू वाले जेब से एक पुरानी स्कूल कापी निकालकर मेरे हाथ में देकर बोले”–सत्या , ये डॉ बघेल ने तुम्हें देने को कहा था!”रणनीति की व्यस्तता में में भूल गया था। रखो। यह तुम्हारी थाती है। मैं जिम्मेदारी से मुक्त हो गया अब!”
फिर बोले”–काका की भूल को भूल जा बेटी!”
मैं चुप रही!कॉपी रख ली।माथे से लगाई।”गरकट्टा” नाटक!स्कूल वाली साधारन कॉपी में उनके गोल गोल हस्ताक्षर!मेरे लिए धरोहर!!
आलमारी में रखा हुआ वह नाटक ।अब प्रकाशित हुआ।
कैसे पश्चाताप करूं? विलम्ब से प्रकाश में लाने के लिए जितने दोषी बृजलाल वर्मा जी यह,उससे कहीं अधिक दोषी में हूँ। प्रकाशन में विलंब के लिए।
परन्तु, ऐसा लग रहा हसे आज की यह विलम्ब ठीक ही रहा।। क्योंकि किसान आंदोलन। चल रहा है । किसानॉन की समस्या पर लिखा हुआ नाटक गरकट्टा बिल्कुल समीचीन है।
मुझ पर असीम विश्वास करने वाले डॉ, बघेल!ममता उंडेलने वाले डॉ, बघेल,सामाजिक प्रगति की ऊर्जा भरने वाले डॉ, बघेल!
उनके सारे रूप मुझे देखने को मिले।आज उनके नाटक “गरकट्टा” को प्रकाशन। व विमोचन करके मुझे बहुत हल्का लग रहा है।एक ऋण था,जिससे उबर रही हूँ।
एक राजनीतिक,समाजसुधारक, साहित्यकार,लोककला के मर्मज्ञ, विचारक, जन से जुड़ी चेतना के वाहक,ओजस्वी वक्ता,
अपने समय के पुरोधा,पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नद्रष्टा–डॉ, बघेल को उनके जन्मदिन पर सादर नमन!!
डॉ, सत्यभामा आडिल