दक्षिणापथ, नगपुरा (दुर्ग ) । “धर्म की आराधना सतत होना चाहिए। सतत किया हुआ धर्म अंत समय तक टिक गया तो सद्गति निश्चित है। मनुष्य जीवन के अंत में धर्म अस्थिर रहने के कारण सही मार्ग नहीं मिल पाता। कहा जाता है अंत भला सो सब भला। अंतिम समय में जीव का ध्यान परमात्मा के प्रति रहे, सत्कर्मों के प्रति रहे तो दूसरा भव सुधर जाता है। उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में मुनि श्री प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब) म.सा. ने गौतम स्वामी के भव-वर्णन करते हुए व्यक्त किए। उन्होने कहा कि शरीर और आत्मा भिन्न है। शरीर यंत्र है, शरीर मशीन है। हम शरीर को ही आत्मा मानने की भूल करते हैं वस्तुतः शरीर चलता है और आत्मा शरीर को चलाती है। हमारी समस्या है कि हम चलने वाले शरीर को ही देखते हैं शरीर को ही सजाते-संवारते हैं, शरीर का ही देखभाल करते हैं लेकिन शरीर को चलाने वाले आत्मा को देखने का प्रयास नहीं करते। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, कुछ त्याग करना पड़ता है। आत्मा को देखने के लिए, आत्मा को जानने के लिए साधना की जरूरत है और साधना के लिए त्याग जरूरी है। जिसमें त्यागने की शक्ति नहीं है वह कुछ प्राप्त भी नहीं कर सकता। हमारा जीवन मन-वचन-काया से संचालित हो रहा है सांसारिक जीवन में मन-वचन – काया के प्रति जागरूकता जितनी आवश्यक है उससे कहीं ज्यादा जरूरी आध्यात्मिक जीवन में मन-वचन-काया से पवित्र रहना जरूरी है। वचन और काया से किया गया पाप प्रत्यक्ष होता है लेकिन मन से किया हुआ पाप अप्रत्यक्ष होकर भी भारी होता है। जिनके पास धर्म नहीं है उनसे भूल होना स्वाभाविक है लेकिन जिनके पास धर्म है उनसे भूल ना हो ऐसा कोई नियम नहीं है। धर्मात्मा से भी भूल होता ही है। धर्मात्मा से भूल हो और सजा न मिले ऐसा भी कोई नियम नहीं है। भूल किसी से भी हो सजा तो मिलेगी ही यह कर्म का अटूट सिद्धांत है। भूल शारीरिक और मानसिक दो तरह के होते हैं। शारीरिक भूल छोटा होता है जबकि मानसिक भूल बड़ा होता है। मानसिक भूल का परिणाम भी भयानक होती है। जीवनपर्यंत धर्म आराधना करने वाला व्यक्ति भी अंतिम समय में मानसिक भूल के कारण सद्गति से दूर हो जाता है। साधना के अंतिम पड़ाव में शारीरिक और मानसिक उपसर्ग हमें भटकाने का प्रयास करते हैं। कदाचित व्यक्ति शारीरिक उपसर्ग को सह ले लेकिन मानसिक उपसर्ग स्थिर रहना कठिन होता है। मन में हर पल असंख्य विचार आते और जाते हैं और उनमें परिवर्तन होता रहता है। मन में जब कोई एक विचार आता है तो तत्क्षण उसके विपरीत विचार भी आ जाता है और इस तरह मन में विचारों की तांता लग जाता है उनमें द्वंद चलता रहता है। त्याग तपस्या के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही होता है। तपस्या करने की शक्ति होने के बावजूद मन उसे टालने का प्रयास करता है। यदि मन को कठोर कर तपस्या आरम्भ कर भी दें तो भी मन विपरीत विचारों के माध्यम से विघ्न पहुँचाने का प्रयास करता है। मानसिक उपसर्ग का परिणाम घातक होता है। मन में उठने वाले बुरे विचार जैसे दुर्गति की ओर ले जाता है वैसे ही अच्छे विचार मनुष्य को सद्गति की ओर ले जाता है। हमारा प्रयास हो कि अंत समय तक हम अपनी साधना में शारीरिक रूप से तटस्थ रहें उससे कहीं ज्यादा मानसिक रूप से दृढ़ स्थिर रहें ।
श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा में प्रवचन श्रृंखला: मानसिक उपसर्ग का परिणाम भयानक होता है – प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब )
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