दक्षिणापथ, दुर्ग । “दुःख के तीन नियम हैं। पहला नियम है कि दुःख देने वाले को मालूम नहीं रहता, दुःख पाने वाले को मालूम रहता है। दूसरा नियम है कि किसी को दुःख पहुँचा तो वह मिटता नहीं है, उसे मिटाना पड़ता है। दुःख टिका रहता है। दुःख का टिकना भारी होता है। अंदर टिका हुआ दुःख द्वेष का कारण बनता है। अंदर टिका दुःख बैर का कारण बनता है। अंदर टिका दुःख गुप्त अग्नि की तरह होता है जिसका विस्फोट भयावह होती है। इसलिए जिसको दुःख पहुँचाया है, उसे मिटाने का प्रयास करें। तीसरा नियम यह है कि औरों के मिटाने से, औरों के सांत्वना से दुःख नहीं मिटता। जिसने दुःख दिया है उसे ही मिटाने की कोशिश करना होगा।”उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में पूज्य मुनि श्री प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब) ने श्री आचारांग सूत्र की व्याख्या करते हुए व्यक्त किए।
अपने मार्मिक उद्बोधन मे पूज्य श्री देवर्धि साहब ने कहा कि अपने लिए जो सुख है उसे अन्य का सुख बना लो। अपने लिए जो दुःख है उसे अन्य का दुःख मत होने दो। दुःख सहने का धैर्य और सुख छोड़ने का सत्त्व बना लो। आप जैसे जहाँ से जो मिला उसे अपना सुख-दु:ख मान लेते हो। सुख का सृजन करना पड़ता है और दुःख के लिए समझदारी बनानी पड़ती है । जीवन में सब कुछ बाहर घटित होता है ऐसा मत मानो। जो भीतर घटित होता है उसे पकड़ने की कोशिश करो फिर बदलने जैसा लगा तो उसे बदलो । भीतर की दुनिया में बदलाव लाने से जीवन की धारा बदलती है आप भावना की निर्माण प्रक्रिया को समझ नहीं पाते हो अत:आप के सुख-दु:ख आप के ऊपर हावी हो जाते हैं ।भीतर का सुख बाहरी सुख पर आधारित नहीं है। बाहरी दुःख का–भीतरी दुःख से गहरा रिश्ता नहीं है।
आप को जो कुछ मिला है वह अन्य लाखों लोगों को नहीं मिला है। आप को जो मिला वह साधारण नहीं है। आप सुन सकते हो, आप बहरे नहीं हो । आप बोल सकते हो, आप गूंगे नहीं हो। आप देख सकते हो, आप अंधे नहीं हो। आप चल सकते हो, आप लंगडे़ नहीं हो। आप श्रीमन्त हो, आप गरीब और भिखारी नहीं हो। आप पढ़े लिखे हो, आप अनपढ़ गवार नहीं हो। और ये सब कोई छोटी बात नहीं है। आप को जो मिला है वह बेशकिमती है । आप उसे आत्मसंतोष से देखिये।
आप को जो रोज-रोज मिलता है वह साधारण लगता है । माता , पिता , पति , पत्नी ,भाई , बहन , मित्र ये सब रोज मिलते है तो हमे लगता है ये आसानी से मिल गये हैं। याद रखिये आज लाखों लोग ऐसे स्वजनों से वंचित होकर जिंदगी चला रहे हैं। आप के सिर पर वैसा अकेलापन नहीं है। आप का सद्भाग्य आप को साथ दे रहा है उसे समझिये और समझदारी से सद्भाग्य को बढ़ावा दीजिये। जो मिला है उसकी कद्र जो नही करता है वह कुछ नया हांसिल नही कर सकता है। आप आज सुबह मरे नही बल्कि जिंदा रहे इससे बड़ा पुण्य क्या हो सकता है आपका ? अपने वर्तमान को अहोभाव से देखो। जो नहीं मिला है उसके लिए रोने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि कि जो मिला है वह अतिशय मूल्यवान है। छोटी-छोटी इच्छाएँ, अधुरी रहे उससे यह फलित नही होता लघुताग्रंथि को मन में कोई जगह मत दो ।
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