दक्षिणापथ , नगपुरा (दुर्ग) । ” माता दुलारकर समझाती है। माता कड़क होकर भी समझाती है। माता की दोनों भाव भिन्न होते हैं। लेकिन दोनों भावों में बच्चे का हित देखती है। परमात्मा महावीर स्वामी ने श्री आचारांग सूत्र के माध्यम से अपने साधु-साध्वी को उपदेश दिया। परमात्मा सीधे शब्दों में कहते हैं कि आप कुछ भी नहीं जानते। प्रश्न है श्री गौतम स्वामी जैसे श्रुत रचयिता के समक्ष परमात्मा कह रहे हैं आप कुछ भी नहीं जानते। खाली पात्र में ही ग्रहण करने की सामर्थता होती है। परमात्मा के शिष्यों में जिज्ञासा है। जिज्ञासा जहाँ होती है वहाँ अज्ञानता मिटने लगता है।” उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा में चातुर्मासार्थ विराजित मुनि श्री प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब) ने श्री आचारांग सूत्र की विवेचना में व्यक्त किए।
उन्होंने कहा कि विचार के तीन नियम हैं। पहला हममें निरन्तर नये-नये विचार आते हैं। दूसरा जो विचार आता है वो सही लगता है। मेरा विचार गलत नहीं है यह धारणा होती है। तीसरा आदमी का विचार गलत हो, ऐसी संभावना हमेशा बनी रहती है। विचार के ये तीन नियम अभिमान को पोषित करता है। ज्ञान की दिशा में बढ़ने से रोकता है। विचारों में नियंत्रण रखना है तो सोचने के लिए स्वतंत्र मत बनो। आपके विचार की प्रक्रिया पर ज्ञानियों का नियंत्रण होना चाहिए। दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति अपने दिमाग से हजारों विचार बनाते रहता है। इन विचारों को दिमाग में भरकर रखता है। विचारों से भरा दिमाग औरों से कुछ ग्रहण करने तैयार नहीं होता। अज्ञान और अधर्म के प्रति स्थिति सदैव स्पष्ट होना चाहिए। मेरा अज्ञान कितना बड़ा है, मुझसे कितना अधर्म हो रहा है, इसके प्रति जागरूकता आत्मविकास का पथ प्रशस्त करता है। जिसे ज्ञान हजम नहीं होता, उसे पोथी पंडित कहते हैं। ज्ञान का घमंड जीवन की सबसे बड़ी बाधा है। दुनिया में लगभग 6000 भाषायें हैं। विचार करें हमें कितनी भाषा आती है। आध्यात्म की बातें छोड़ दें, शास्र की बातें छोड़ दें, संसार में तकनीकी शिक्षा है, संसार में चिकित्सा विज्ञान है, संसार में जीवविज्ञान है, भूगोल है, गणित है आदि आदि। आप कहाँ तक ज्ञान रखते हैं। आपसे बढ़कर करोड़ों व्यक्ति विभिन्न विषयों में पारंगत होते हैं, करोड़ों व्यक्ति दक्ष होते हैं, निष्णांत होते हैं, उनके सामने आपका ज्ञान कितना अल्प है। उनके सामने आप कितना अज्ञानी हैं। आध्यात्म की दृष्टिकोण से हमें पता नहीं है हम जन्म से पूर्व कहाँ थे,कैसे थे। हमें यह भी पता नहीं है कि मरने के बाद कहाँ जायेंगे। ज़िन्दगी के 50 वर्ष पूर्व और 50 वर्ष बाद की स्थिति नहीं जान पाते फिर ज्ञान का अभिमान कैसा। जब व्यक्ति अपने को अज्ञानी मानने लगता है तब ज्ञान का दीपक प्रगट होना शुरू होता है अज्ञानता की भाव से जिज्ञासा पैदा होती है। जिज्ञासा की उत्पत्ति अज्ञानता का नाश करता है। अज्ञानता और अधर्म की वजह-आलस्य है। मुझमें अज्ञानता है, मुझसे अधर्म हो रहा है, मुझमें आलस्य है का चिंतन होना चाहिए। जो इन तीनों पर सतत् चिंतन करता है, तीनों के प्रति जागृत रहता है वह ज्ञान की दिशा में निश्चित रूप से आगे बढ़ता है। जब ज्ञान का अहंकार खत्म होता है तब धर्म असान होता है। ज्ञान का अहंकार धर्म को विकसित नहीं होने देता। जब भी कुछ सीखना है, अपने दिमाग को खाली रखो। अपने विचारों को सही ठहराने का प्रयास मत करो। खाली गिलास में पानी डालने से गिलास भरता है। भरे हुए गिलास में डाला गया जल व्यर्थ चला जाता है। ज्ञान अर्जन के लिए पात्र बनना निहायत जरूरी है।
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