दक्षिणापथ. कहानियां बनती हैं मुश्किलों से, इंसान के जुनून से, गरीबी से, खून पसीने से। यूं ही नहीं कोई खिलाड़ी रातोंरात देश को नाम चमकाने के लिए Tokyo Olympic चला जाता। आज हम आपको बताने जा रहे हैं देश की उस बेटी की कहानी जो टोक्यो ओलंपिक खेलने जा रही है। लेकिन सफर आसान नहीं था। घर में गरीबी थी पर भी रेवती वीरामनी ने हार नहीं मानी। अब वो टोक्यो ओलंपिक में भाग लेने जा रही हैं।
बचपन में ही खो दिए थे माता-पिता
रेवती वीरामनी जब 7 वर्ष की थी जब उनके पिता का देहांत हो गया था। तमिलनाडु की रहने वाली रेवती की मां भी पिता के दुनिया से अलविदा कहने के एक वर्ष बाद चल बसी थीं।
नानी करती थी मजदूरी
रेवती और उनकी बहन दोनों को बचपन से ही उनकी नानी मां ने पाला है। उन्होंने मजदूरी करके उन्हें पाला है।
जूते खरीदने के नहीं होते थे पैसे
गरीबी का आलम ये था कि रेवती कई प्रतियोगिताओं में भाग लेती थी तो उनके पास जूते भी नहीं होते थे। कई बार वो नंगे पैर ही दौड़ी हैं। जब उनके कोच कानन ने उनका ये टैलेंट देखा तो वो हैरान रह गए।
मदद के लिए आए आगे
कानन ने बताया कि उन्होंने रेवती की मदद की यहां तक कि उन्होंने पहले उसे जूते दिलवाए, उनके कॉलेज की फीस का भी प्रबंध किया। वो कहते हैं, ‘जब मैंने देखा कि उसकी नानी एक छोटे से गांव में रहकर उन्हें आगे भेजने के लिए कोशिश कर रही है। मैंने सोचा कि मैं ऐसे लोगों की मदद करूंगा उन्हें तैयार करूंगा।’
नानी को सुनने को मिलते थे ताने
हमारा समाज कुछ ऐसा ही है। रेवती की नानी को गांव-देहात में इस बात को लेकर ताने सुनने पड़ते थे कि वो लड़की को दौड़ने के लिए क्यों प्रोत्साहित कर रही हैं, लेकिन उन्होंने ऐसे दकियानूसी सोच वाले समाज की एक ना सुनी और रेवती को रनिंग के लिए प्रोत्साहित किया। रेवती के सहयोगियों ने भी उनकी काफी आर्थिक मदद की।
संघर्ष के बाद मिली नौकरी
कई वर्षों तक संघर्ष करने के बाद उन्हें दक्षिणी रेलवे में नौकरी मिल गई। रेवती ने 400 मीटर की दौड़ 53.55 सेकेंड में पूरी की। और वो चार गुणा 400 मीटर मिश्रित रिले टोक्यो ओलंपिक के लिए सेलेक्ट हो गई। 23 वर्षीय रेवती ट्रायल देने आई महिला धावकों में से सबसे तेज दौड़ रही थी।