दक्षिणापथ, नगपुरा /दुर्ग । “श्री आचारांग सूत्र हमें स्पष्ट संदेश देता है। भगवान श्री महावीर स्वामी सचेत कर रहे हैं। अपने पूर्व भवों की परिकल्पना करें। पूर्वभवों का स्मरण नहीं है। अगर कल्पना भी करें, उस कल्पना से चिंतन करें। हमारा जीव पूर्व में किन-किन भवों में भ्रमणा की है। उन भवों में किस तरह की वेदना होती है। उन भवों की पीड़ाओं को महसूस करें। परिवर्तन की दिशा मिलेगी। विराधना को देखो। विराधना के प्रति जागृत रहो। खुद को ताकते रहो। अपनी गलती के विषय में खुद को डाँटते रहो। खुद को डाँटना परिवर्तन का मजबूत मार्ग है। उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में श्री आचारांग सूत्र की व्याख्या करते हुए पूज्य मुनि श्री प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब) ने व्यक्त किए।
प्रवचन श्रृंखला में पूज्य श्री देवर्धि ने कहा कि चमत्कार प्रभावित करता है। चमत्कार बाहर नहीं है। दुनिया में आदमी के अंदर चमत्कार है। सबसे बड़ा चमत्कार अंदर बैठा है। जो खुद पर काम करता है, वो बदलाव ला सकता है। खुद को बदल सकता है। जो दूसरों पर दृष्टि रखता है वह अपने अस्तित्व से दूर होने लगता है। जीव सतत 27 प्रवृत्तियों के साथ भवभ्रमणा करता है। मन-वचन-काया,करन,करावन,अनुमोदना, भूत, भविष्य, वर्तमान की त्रिपदी के साथ जन्म-मरण का चक्र चल रहा है। मनुष्य का जीवन धर्ममय हो। मनुष्य धर्मात्मा बने। धर्मपथ पर चले, यह जीवन का उद्देश्य है। तीन विडम्बनाएँ धर्म के साथ जुड़ी है। एक आदमी धार्मिक स्थान में आता है और मान लेता है कि मैं धर्मी बन गया। दूसरी विडम्बना आदमी धर्म के स्थान में समय बीताता है और मान लेता है कि मैं धर्मी हो गया। तीसरी विडम्बना, आदमी धर्म की बातें करता है और खुद को धर्मी मान लेता है। ध्यान रखें, उपरोक्त तीनों केवल व्यवस्था है। मंदिर, उपाश्रय में बैठना उत्तम बात है। मंदिर उपाश्रय के लिए समय निकालना उत्तम बात है। धर्म की बातें करना, धार्मिक वार्ता करना उत्तम बात है। परन्तु ये सभी व्यवस्था है। व्यवस्था अच्छी है। अभ्यास व्यक्ति को उत्तम बनाता है। धर्म अंतरंग पुरुषार्थ से होता है। भगवान महावीर फरमाते हैं कि तीन वाक्य संसार में दुर्लभ हैं। पहला यह है कि मैं दुःख दे रहा हूँ, यह विचार कभी नहीं आया। दूसरा यह है कि मुझे किसी को दुःख नहीं देना चाहिए, यह विचार कभी नहीं आया। तीसरा यह है मुझे दुःख देना कम करना चाहिए,विचार दुर्लभ है। पहला वाक्य ज्ञान है, दूसरा वाक्य श्रद्धा है,तीसरा वाक्य आचार है। जब मनुष्य तीनों वाक्य पर चिंतन करता है परिवर्तन का मार्ग मिलता है। यह चिंतन विराधना से बचाता है। यह चिंतन पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय, वनस्पतीकाय के प्रति करूणा जागृत करता है। करूणा का भाव-विराधना से बचाता है। पापों से बचाता है। हमारा यह चिंतन हमारे परिवार के प्रति, समाज के प्रति, कुटुम्बजनों के प्रति मैत्री रखने का संदेश देता है। धर्म अंदर से होता है। हमारा प्रयास हो अंदरूनी चमत्कार को देखें।
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