दक्षिणापथ, नगपुरा/दुर्ग। संसार राग-द्वेष से भरा है। राग-द्वेष भवभ्रमणा का कारक है से उन्मुक्त हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति असंभव हैं। परमात्मा के प्रति अनुराग प्रशस्त राग हैं। शरीर के प्रति राग, परिवार के प्रति राग, सांसारिक सुख सुविधाओं के प्रति राग, यह अप्रशस्त राग है। इस तरह राग के दो प्रकार-हुए- प्रशस्तराग और अप्रशस्त राग। मानव जीवन अप्रशस्त राग से भरा हुआ हैं। इनसे उन्मुक्त होना असंभव हैं। अप्रशस्त राग से उन्मुक्त होने का सरल तरीका है- प्रशस्तराग में अभिवृद्धि। प्रशस्त राग बढऩे से अप्रशस्त राग कम हो जायेगा। इसलिए हमारा प्रयास प्रशस्तराग में निरंतर अभिवृद्धि करने का होना चाहिए। उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पाश्र्व तीर्थ में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में मुनि श्री प्रशमरति विजय जी (देवर्धि साहेब) म.सा. ने गौतम स्वामी के भव-वर्णन करते हुए व्यक्त किए।
पूज्य देवर्धि साहेब ने गौतम कथा का वर्णन करते हुए कहा कि भगवान श्री महावीर स्वामी के प्रति श्री गौतम स्वामी का प्रेम प्रशस्त राग था। श्री गौतम स्वामी भगवान को गुरू मानते थे और गुरू में भगवान को देखते थे। श्री गौतम स्वामी का जीवन चरित्र हमें शिक्षा देता है कि किसी एक के पीछे पागल बनो। एक को साधो सब सध जायेगा। दुनिया में पागल लोग ही इतिहास बनाते हैं। जिनमें अंहकार होता है, दिखावा होता है, आडम्बर होता है वह इतिहास नहीं रचता। मीरा की तरह पागल के लिए जहर भी अमृत बन जाता है। भक्ति की संवेदना, आध्यात्म की अंतिम छोर पागल व्यक्ति को ही मिलता है। प्राचीन गंथों में भक्ति की व्याख्या की गई है। भक्ति का मतलब है पूर्ण समर्पण। ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला सच्चा साधक ही भक्त है। अपने ईष्ट को छोड़कर आसपास कुछ भी दिखाई ना दे, यह भक्ति है। सोते-जागते, उठते-बैठते, ईष्ट का चिंतन, ईष्ट के प्रति समर्पण भक्ति है। अप्रशस्त राग संसार का बंधन कराता है। प्रशस्त राग भक्ति का द्वार खोलता है। प्रशस्त राग मुक्ति का द्वार खोलता है। सकारात्मक दृष्टिकोण से ही सफलता मिलती हैं। अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर आचार विचार करें। औरों के प्रति नकारात्मक सोच रखने की जरूरत नहीं है। दूसरों के प्रति नकारात्मक सोच से हमारी ऊर्जा नष्ट होती है। हमारी शक्ति कमजोर होती हैं। दुनिया के सफल व्यक्तियों ने अपने लक्ष्य पर ध्यान रखा। कौन क्या कर रहा है, इस ओर उन्हें सोचने के लिए फुर्सत नहीं मिला। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनिमान मुक्त होना जरूरी है। अभिमान से मुक्त व्यक्ति ही आदर का पात्र बनता है। अभिमान युक्त मन से लिया गया निर्णय अधिकांशत: गलत ही होता है। अभिमान सद्गुणों के अर्जन में बाधक हैं। जहाँ अहंकार होगा वहां नम्रता-बुद्धि-विवेक-चातुर्य आदि गुण नहीं टिकेगा। अहंकार मनुष्य पर हावी हो जाता है। अहं के कारण अपने को बड़ा मानने लगता है औरों को तुच्छ। अहंकार औरों को मिटाकर बड़ा बनना चाहता है। अप्रशस्त राग से बहुत ज्यादा-बहुत लम्बा प्रशस्त राग की रेखा खीचें। प्रभु के प्रति प्रीति बढ़े। प्रभु के प्रति अनुराग बढ़े। प्रभु भक्ति का आलम्बन मिले यह विचार और सत्कर्म हमारी चिंतन हो। श्रावण बद पंचमी से श्री आचारांग सूत्र श्री विपाकसूत्र में विशेष रूप से हिन्दी में प्रवचन होगी उल्लेखनीय है पूज्य देवर्धि साहेब गुजराती, मराठी, संस्कृति, अंग्रेजी भाषाओं में दक्ष है। समय-क्षेत्र अनुसार विभिन्न भाषाओं में प्रवचन देते हैं।
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