दक्षिणापथ, नगपुरा (दुर्ग)। ”चातुर्मास आत्मा का विकास करने का मौसम है। मनुष्य के पास अपरिमित-असीमीत-अनंत शक्ति है। प्रयास होना चाहिए कि हम मन-वचन-काया से सद्चित आनंद से जुडऩे की कोशिश करें। प्रयास करेंगे तो सफलता निश्चित है। प्रयास कभी निरर्थक नहीं जाता है। कदाचित हमें अपना लक्ष्य ना भी मिले लेकिन अनुभव तो हासिल हो जाता है। उक्त उद्गार श्री उवसग्गहरं पाश्र्व तीर्थ विराजित पूज्य मुनि श्री प्रशमरति विजय जी म.सा. (देवर्धि साहेब) ने चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला में व्यक्त किए-
पूज्य देवर्धि साहेब ने कहा कि मानव जीवन में कष्ट स्वभाविक है, हम उवसग्गहरं तीर्थ में हैं, उवसग्गहरं का तात्पर्य उपसर्ग को हरने वाला होता है, हमारे कष्टों को, हमारे उपसर्गों को दूर करने की सामथ्र्यता परमात्मा श्री उवसग्गहरं पाश्र्व प्रभु में है, जरूरत है हमें प्रमाद त्यागकर समर्पण के साथ प्रभु भक्ति करने की। उपसर्ग (कष्ट) दो तरह के होते हैं, बाह्य उपसर्ग और आंतरिक उपसर्ग। मनुष्य बाह्य उपसर्गों (कष्टों) से लड़ लेता है लेकिन आंतरिक उपसर्गों से लडऩे की शक्ति होने के बावजूद प्रमादवश बिना किसी प्रयास के हार स्वीकार लेता है। आंतरिक उपसर्ग तीन तरह के होते हैं जो मनुष्य के द्वारा स्वयं निर्मित किया जाता है पहला मुझमें शक्ति नहीं है, दूसरा मेरे पास समय नहीं है और तीसरा जो जरूरी है उसे टालना जो जरूरी नहीं है उसको प्राथमिकता देना। ये तीनों कारण मनुष्य के जीवन विकास में बाधक हैं। शक्ति होने के बावजूद उसके परिणाम को जागृत नहीं करना, शक्ति होने के बाद भी उसका उपयोग नहीं करना पुण्य का अपराधी है। दान देने की शक्ति होने के बाद भी दान ना देना पुण्यानुबंधी पुण्य को अवरूद्ध कर देता है। दूसरा बहुतायत मनुष्य के जीवन में दुनियादारी, सैर सपाटे के लिए, औरों की कमी ढूंढने, निंदा करने, सांसारिक कार्यों के लिए पर्याप्त समय होता है लेकिन जब धर्म आराधना की बात होती है, आत्मा के विकास का मार्ग सुझाया जाता है तब सहजता से कह देते हैं कि हमारे पास समय नहीं है। समय तो पर्याप्त है, समय का सदुपयोग करने की इच्छा शक्ति की कमी रहती है, समय के महत्व को समझने की कमी रहती है इसलिए जो समय अनमोल है, बहुमूल्य है, मूल्यवान है उसे मनुष्य खो देता है। जो समय का फिक्र नहीं करता समय उसका फिक्र नहीं रखता। वक्त गुजर जाता है तब व्यक्ति को अहसास होता है कि जो समय मिला था उसका वह सदुपयोग नहीं कर पाया। तीसरा मनुष्य की प्रवृत्ति होती है जो कार्य को प्राथमिकता देना चाहिए उसे टालने का प्रयास करता है जो जरूरी नहीं है उसे प्राथमिकता देता है और जो जरूरी है उसे जरूरी नहीं मानता। जीवन में शांति का अनुभव करना है, अपने आत्मा का विकास करना है, सद्गति को लक्ष्य रखकर जीवन निर्माण करना है, तो उक्त तीनों उपसर्गों के लिए हमें चिंतन करना होगा। चिंतन करेंगे तो दिशा मिलेगी और सही दिशा मिलने से ही मंजिल को प्राप्त किया जा सकता है।
आज गुरू पूर्णिमा के अवसर पर सिद्धचक्र पूजन की संरचना प्रतिभादेवी भीखमचंद कोठारी दुर्ग द्वारा की गई। प्रात: अखण्ड शांतिधारा अभिषेक एवं आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि विरचित परमात्मा के 273 गुण विशेषण युक्त वर्धमान शक्रस्तव स्तोत्र के साथ महाभिषेक सम्पन्न हुआ।
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