मां चाय में शक्कर तो पिता सब्जी में नमक के समान: साध्वी दिव्यांशी श्री

by sadmin

दक्षिणापथ, दुर्ग । जय आनंद मधुकर रतन दरबार बांदा तलाब दुर्ग में आज भक्तांबर स्तोत्र के 45 वे श्लोक का जाप अनुष्ठान छत्तीसगढ़ प्रवर्तक रतन मुनि के सानिध्य में ओजस्वी वक्ता उपप्रवर्तनी साध्वी श्री मंगल प्रभा के मार्गदर्शन में श्रमण संघ दुर्ग के श्रावक श्राविकाओं ने इस जाप अनुष्ठान को किया। आचार्य मानतुंगाचार्य द्वारा रचित भक्तांबर स्त्रोत की 48 श्लोक की रचना की गई है और हर श्लोक का अपना महत्व है। आज आनंद मधुकर रतन भवन के सभागृह में 45 वे श्लोक का जाप अनुष्ठान हुआ इस अनुष्ठान से मनुष्य के भयंकर जलोदर रोग औषधियां लेते रहने के बाद भी जिनके जीवन में शरीर स्वस्थ नहीं रहता अत्याधिक पीड़ादायक रोग से मुक्ति हेतु इस श्लोक के जाप अनुष्ठान से शरीर को बहुत फायदा पहुंचता है।
बड़े ही हर्ष और उल्लास के वातावरण में जैन समाज के लोगों ने इस आयोजन में हिस्सा लिया। आज धर्म सभा को साध्वी दिव्यांशी श्रीजी महाराज का प्रवचन माता पिता वह परिवार पर केंद्रित था आज मनुष्य की जीवन शैली हम दो हमारे दो पर केंद्रित हो गई है आज बेटे माता पिता की सेवा और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पा रहे पूर्व में एक समय ऐसा था जब एक बाप 10 बच्चों का पालन पोषण और पारिवारिक जिम्मेदारी का निर्वहन बहुत अच्छे ढंग से संपादित कर लेता था लेकिन आज 10 बेटे भी मिलकर अपने मां-बाप की सेवा भक्ति उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं।

साध्वी श्री ने कहा मां तो मां होती है मां का कोई विकल्प नहीं है । मां चाय में शक्कर के समान है तो पिता सब्जी में नमक के समान है इन दोनों के बिना ना चाय का स्वाद रह जाता है और ना ही नमक के बिना भोजन का मां जीवन रूपी लाकर है तो पिता उस लॉकर की चाबी के रूप में कार्य करता है। साध्वी श्री ने वर्तमान में जीने का संदेश दिया जीवन का पल भर का भी भरोसा नहीं है और हम व्यर्थ में ही आगे के जीवन के संचालन के लिए व्यर्थ में ही उलझे रहते हैं हमें उन्नति शील और प्रगतिशील विचारधारा का पालन करते हुए जीवन को जीना चाहिए हमें अपने कर्म काटने के लिए बड़ी ही पुण्य कृपा से यह मानव योनि मिली है मानव योनि को छोड़कर और किसी योनि में अपने कर्म काटने मार्ग नहीं मिला है इसलिए मानव जीवन को शुद्ध सात्विक और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए जीवन मानव जीवन को हमें जीना चाहिए। हमारी इंद्रियों का स्वामी केवल मन है और मन पूरे शरीर को जो आदेश देता है शरीर उसका पालन करता है। आत्मा को परमात्मा के रूप में बनाने में संस्कार का बड़ा ही महत्व है पहले हम खुद संस्कारी बने तभी हम अच्छे संस्कार दूसरों को दे सकेंगे हमें अपनी आत्मा का गुलाम बनना चाहिए हमारे पुण्य हमारे पाप दोनों हमारे साथ ही जाएंगे अच्छे कर्म हमें सदगति की ओर ले जाते हैं और बुरे कर्म दुर्गति के रास्ते खोलते हैं। अब हमें निर्णय करना है कि हमें कौन से मार्ग में जाना है।

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